रविवार, अगस्त 31, 2008

अनोखा बंधन


छोटी सी गुडिया ....
वो छोटी सी गुडिया जाने कब बड़ी हो गई
ऐसा लगता है मानो कल ही उसने तोतली बोली से माँ कहना सिखा हो
ये कैसी बिडम्बना है
जिस घर मै पलकर बड़ी होती है
कल उसी घर के लिए परायी हो जाती है
कभी जरूरत पड़ने पर भी , नही मिलती है उनकी परछाई
कैसे है ये रिवाज ,
पहन कंगना खनकाए किसी और का अंगना ,
क्यों नही टूटते ये रस्म
क्यों नही वो उम्र भर अपने होते है ,
क्यों बजती है सहनाई,
क्यों होती है उनकी बिदाई ,
कितने रिस्तो का ये बंधन ,
कभी बेटी , कभी बहन और कभी माँ
डोली कही और से उठती है , अर्थी कोई और ले जाता है ,
यही बंधन है स्त्रियों का ,
जहाँ कोई अपना नही ,
और देखो तो जाते वक्त भी , एक रिश्ता बना जाती है
जो पराई होकर भी अपनी हो जाती है /
दीप नारायण

1 टिप्पणी:

jyoti mishra ने कहा…

aap ne aapne shabdho ke jareye aaurat ke pure jivan ko chune ki koshish ki hai jo sarhaniye hai aap ka har shabdh unke jivan ki sachae yo darshata hai.aap ke shabdh me wo baat hai jo risto ko jivant kar dete hai..A SALUTE TO WOMEN AND WHO MADE WOMEN ON EARTH.