पानी पानी रे..... जहाँ देखा वहां पानी ही पानी
खेत में पानी खालेहन में पानी
घर में , दालान में पानी ही पानी
लीला जब तक समझ में आती कोसी सब कुछ लील चुकी थी ।
कोसी के बाढ़ मे सब कुछ दह गया
कुछ बच गया तो वो थी उम्मीद.......
बाढ़ से घीरे उस ऊँचे मचान पर बैठे लोगों की उम्मीद भी जबाब दे चुकी है ।
आँखों के सामने आज भी वही मंजर वक़्त बे वक़्त दस्तक दे जाती है ।
सुख दुःख मे गांव साथ था ,पर मदद की स्थिति मे नही ।
बाढ़ की ख़बर सुन परिवार को बचने दिल्ली से चला
पहुँचते पहुँचते आठ दिन लग गए
घर तो दूर परिवार की एक झलक को तरस गया ।
किसको किस गुनाह की सजा मिल रही थी , पता नही ॥
उस दूध मुहे बच्चे की क्या खता थी ? समझ नही पाया !
नाव में जगह नही थी बाबा आ न सके ,
नाव चल पड़ी तो माँ फुट फुट कर रोने लगी ।
बाबा मन को दिलाशा दिलाते रहे , आबाद रहे तू ॥
दोनों बच्चों को संभालना मुस्किल पड़ रहा था ,
पर बेचारी मेमने को कैसे छोड़ दे ।
कल तक हमारे परिवार को पलती रही गैया को कैसे छोड़ दे
पर ले जाए तो कहाँ ?
छाती फट पड़ी , धीरे धीरे पानी की धारा उसे अपने साथ बहा ले गई
उसकी बेचैनी भी नही दिखी ॥ दिखी तो सिर्फ़ उसकी आँखे
जो शायद मेरी बेबसी को समझ गई ।
सेना सरकार और संस्था सभी ने कोशिश की और करते रहे ॥
सभी तरफ़ से मदद के हाँथ बढे पर नाकाफी साबित हुए ।
जन्माष्टमी आई कृष्ण भी जन्मे पर लोगों को इस विपत्ति से तार ना सके ।
तीज भी सुहागिनों का सुहाग बचा ना सकी ।
रोजा रखते और खुदा दे इबादत की पर कोसी तांडव मचाती रही ।
जिंदगी पटरी पर लाने की कोशिश जारी है ,
मतलबी अपना मतलब साधते रहे ।
राजनितिक पैंतरे आजमाने का सही समय तलाशते रहे ,
कुछ ने राजनितिक रोटी भी शेक ली , कुछ तयारी में लगे है ।
शियाशी पैंतरे समझने से ज्यादा जरूरी
जिंदगी का फलसफा समझने की थी ।
उम्मीद आज भी कायम है ।
घर बसाना है ...
मुनिया के हाँथ पीले करने है ....
छोटू को स्कूल भेजना है ....
ईद मनानी है ...
दिवाली मनानी है ....
एक आस जिसके बूते
जिंदगी अब भी जिंदा है .........
दीप नारायण दुबे
खेत में पानी खालेहन में पानी
घर में , दालान में पानी ही पानी
लीला जब तक समझ में आती कोसी सब कुछ लील चुकी थी ।
कोसी के बाढ़ मे सब कुछ दह गया
कुछ बच गया तो वो थी उम्मीद.......
बाढ़ से घीरे उस ऊँचे मचान पर बैठे लोगों की उम्मीद भी जबाब दे चुकी है ।
आँखों के सामने आज भी वही मंजर वक़्त बे वक़्त दस्तक दे जाती है ।
सुख दुःख मे गांव साथ था ,पर मदद की स्थिति मे नही ।
बाढ़ की ख़बर सुन परिवार को बचने दिल्ली से चला
पहुँचते पहुँचते आठ दिन लग गए
घर तो दूर परिवार की एक झलक को तरस गया ।
किसको किस गुनाह की सजा मिल रही थी , पता नही ॥
उस दूध मुहे बच्चे की क्या खता थी ? समझ नही पाया !
नाव में जगह नही थी बाबा आ न सके ,
नाव चल पड़ी तो माँ फुट फुट कर रोने लगी ।
बाबा मन को दिलाशा दिलाते रहे , आबाद रहे तू ॥
दोनों बच्चों को संभालना मुस्किल पड़ रहा था ,
पर बेचारी मेमने को कैसे छोड़ दे ।
कल तक हमारे परिवार को पलती रही गैया को कैसे छोड़ दे
पर ले जाए तो कहाँ ?
छाती फट पड़ी , धीरे धीरे पानी की धारा उसे अपने साथ बहा ले गई
उसकी बेचैनी भी नही दिखी ॥ दिखी तो सिर्फ़ उसकी आँखे
जो शायद मेरी बेबसी को समझ गई ।
सेना सरकार और संस्था सभी ने कोशिश की और करते रहे ॥
सभी तरफ़ से मदद के हाँथ बढे पर नाकाफी साबित हुए ।
जन्माष्टमी आई कृष्ण भी जन्मे पर लोगों को इस विपत्ति से तार ना सके ।
तीज भी सुहागिनों का सुहाग बचा ना सकी ।
रोजा रखते और खुदा दे इबादत की पर कोसी तांडव मचाती रही ।
जिंदगी पटरी पर लाने की कोशिश जारी है ,
मतलबी अपना मतलब साधते रहे ।
राजनितिक पैंतरे आजमाने का सही समय तलाशते रहे ,
कुछ ने राजनितिक रोटी भी शेक ली , कुछ तयारी में लगे है ।
शियाशी पैंतरे समझने से ज्यादा जरूरी
जिंदगी का फलसफा समझने की थी ।
उम्मीद आज भी कायम है ।
घर बसाना है ...
मुनिया के हाँथ पीले करने है ....
छोटू को स्कूल भेजना है ....
ईद मनानी है ...
दिवाली मनानी है ....
एक आस जिसके बूते
जिंदगी अब भी जिंदा है .........
दीप नारायण दुबे