रविवार, अगस्त 31, 2008

अनोखा बंधन


छोटी सी गुडिया ....
वो छोटी सी गुडिया जाने कब बड़ी हो गई
ऐसा लगता है मानो कल ही उसने तोतली बोली से माँ कहना सिखा हो
ये कैसी बिडम्बना है
जिस घर मै पलकर बड़ी होती है
कल उसी घर के लिए परायी हो जाती है
कभी जरूरत पड़ने पर भी , नही मिलती है उनकी परछाई
कैसे है ये रिवाज ,
पहन कंगना खनकाए किसी और का अंगना ,
क्यों नही टूटते ये रस्म
क्यों नही वो उम्र भर अपने होते है ,
क्यों बजती है सहनाई,
क्यों होती है उनकी बिदाई ,
कितने रिस्तो का ये बंधन ,
कभी बेटी , कभी बहन और कभी माँ
डोली कही और से उठती है , अर्थी कोई और ले जाता है ,
यही बंधन है स्त्रियों का ,
जहाँ कोई अपना नही ,
और देखो तो जाते वक्त भी , एक रिश्ता बना जाती है
जो पराई होकर भी अपनी हो जाती है /
दीप नारायण

ऐ मौत तू आ ...

ऐ मौत तू आ ॥
ऐ मौत तू आ , मै तेरा इंतजार करता हूँ,
तू है एक कवि की कल्पना
तू ही है एक हकीकत
जग मे तू ही है एक सच्चाई
तू ही तो है जो अब तक , किया ना किसी से बेवफाई
ऐ मौत तू आ ......
सब तुमसे दूर भागते है ,
ये सब नादाँ है ,इन्हे पता नही ,
जिनसे ये दूर भागते है ,तेरे उतने ही करीब आते है
जिस दुनिया के मेले से ये भागते है ,
उस मेले से उनको एक दिन उठ जाना है ,
ऐ मौत तू आ ॥
जब तुम आओ मेरे करीब ,
उस वक्त ना दिन हो , ना रात
मै उस वक्त तेरे साथ चलूँगा
ऐ मौत तू आ ...
जब कमजोर पड़ने लगे मेरे नब्ज़
जब साँस भी साथ छोड़ने लगे
सब सरे अपने लगने लगे बेगाने
उस वक्त तू आना
मै तेरे साथ चलूँगा
ऐ मौत तू आ ...
मै सोया रहूँ उनकी गोद में
माँ की लोरी सुन जब सो जाऊं
तब तू आना , मुझे साथ ले जाना
बस जाते समय उनका चेहरा दिखा जाना
फ़िर मै तेरे साथ चलूँगा ।
ऐ मौत तू आ ...
दीप नारायण